वाराणसी : पूर्वांचल की सबसे व्यस्त और लोकप्रिय बाजारों में शुमार बनारस की दालमंडी अब चौड़ीकरण की राह पर है। ईद हो या दिवाली, यह बाजार हर वर्ग, खासकर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की पहली पसंद रहा है—एक ऐसी जगह जहां हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के साथ खरीदारी करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “विकास मॉडल” ने बनारस को नई पहचान दी है, लेकिन इसी विकास की बयार अब काशी की तंग गलियों और सदियों पुरानी दुकानों पर भारी पड़ रही है।
दालमंडी में चौड़ीकरण की योजना को लेकर सरकार ने बजट भी पास कर दिया है और प्रशासन ने इसकी तैयारियां भी तेज कर दी हैं। लेकिन यहाँ एक बड़ा सवाल उठता है—क्या यह विकास उन हजारों दुकानदारों और उनके परिवारों के लिए विनाश का कारण बनेगा? क्या दशकों से अपनी छोटी सी दुकान के सहारे जीवनयापन कर रहे ये लोग, इस विकास की भेंट चढ़ जाएंगे?
वाराणसी की सदियों पुरानी और पूर्वांचल की सबसे लोकप्रिय दालमंडी बाजार पर अब चौड़ीकरण का खतरा मंडरा रहा है। यह बाजार, जहाँ हिंदू-मुस्लिम मिलकर खरीदारी करते हैं और जो गरीब व मध्यमवर्गीय परिवारों की पहली पसंद रहा है, अब प्रधानमंत्री मोदी के विकास मॉडल की चपेट में आ सकता है। सरकार ने चौड़ीकरण के लिए बजट भी पास कर दिया है, लेकिन इससे हजारों दुकानदारों और उनके परिवारों की रोजी-रोटी पर संकट आ गया है। इसी चिंता को लेकर शहर के काजी ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर गुहार लगाई है। यह सिर्फ एक बाजार का नहीं, बल्कि काशी की विरासत और हजारों लोगों के भविष्य का सवाल है। देखना होगा कि क्या सरकार विकास के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का भी ध्यान रखेगी या फिर दालमंडी की ऐतिहासिक पहचान विकास के बुलडोजर तले दब जाएगी।
अब देखना यह है—क्या हुक्मरानों का दिल पसीजेगा और वे दालमंडी के व्यापारियों की सुध लेंगे, या फिर विकास का बुलडोजर उनके सपनों और विरासत पर गरजेगा? यह सिर्फ एक बाजार का मसला नहीं, बल्कि वाराणसी की आत्मा और उसकी सदियों पुरानी संस्कृति का सवाल है। शहरवासी और दालमंडी के व्यापारी टकटकी लगाए बैठे हैं, उम्मीद है कि न्याय और संवेदनशीलता की जीत होगी।




