इतिहास के पन्नों में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो चमकते तो हैं, पर उनकी चमक के पीछे कई ऐसे गुमनाम नायक होते हैं जिनकी कहानियाँ अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। बटुकेश्वर दत्त, एक ऐसा ही नाम है – भगत सिंह के अनमोल साथी, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, पर आज़ाद भारत ने उन्हें क्या दिया? यह कहानी है एक ऐसे वीर सपूत की, जिसकी देशभक्ति पर तो कोई शक नहीं कर सकता, पर जिसने आज़ाद देश में दर-दर की ठोकरें खाईं।
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर, 1910 को हुआ था। उन्होंने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई कानपुर के पी.पी.एन. हाई स्कूल से पूरी की थी। उस दौर में दसवीं पास होना एक अच्छी नौकरी के लिए काफी था, पर बटुकेश्वर दत्त ने अपने लिए आज़ादी के आंदोलन का रास्ता चुना। वे क्रांतिकारी भगत सिंह के अभिन्न साथी बने।
1929 में, इतिहास के पन्नों में दर्ज वह घटना हुई जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में बम फेंका। इस कृत्य के लिए बटुकेश्वर दत्त को फाँसी भी हो सकती थी, पर किस्मत ने उनका साथ दिया और उन्हें आजीवन कारावास के लिए अंडमान निकोबार की ‘काला पानी’ जेल भेज दिया गया। मौत उनके करीब से छूकर निकल गई।
जेल में भयानक टी.बी. की बीमारी ने उन्हें घेर लिया, एक बार फिर मौत उनके सामने थी, पर बटुकेश्वर दत्त ने मौत को भी मात दे दी। कहते हैं कि जब उन्हें जेल में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की खबर मिली, तो वे बहुत उदास हुए। उनकी उदासी इसलिए नहीं थी कि उनके दोस्तों को फाँसी की सज़ा हुई, बल्कि इसलिए थी कि उन्हें इस बात का अफ़सोस था कि उन्हें क्यों ज़िंदा छोड़ दिया गया! यह उनके भीतर की गहरी देशभक्ति और बलिदान की भावना को दर्शाता है।
1938 में उन्हें रिहाई मिली, पर वे चैन से नहीं बैठे। वे तुरंत ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में कूद पड़े। जल्द ही उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और वे कई सालों तक जेल की यातनाएं झेलते रहे।
बहरहाल, 1947 में देश आज़ाद हुआ और बटुकेश्वर दत्त को भी रिहाई मिली। लेकिन इस वीर सपूत को वह सम्मान और दर्जा कभी नहीं मिला, जिसके वे हक़दार थे। आज़ाद भारत में बटुकेश्वर दत्त नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। उन्होंने कभी सब्जी बेची, कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला, तो कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया, पर सब में असफल रहे।
एक घटना तो बेहद शर्मनाक है। बताया जाता है कि पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने भी उसके लिए आवेदन किया। जब 50 साल के इस अधेड़ क्रांतिकारी की पेशी पटना के कमिश्नर के सामने हुई, तो उनसे कहा गया कि वे ‘स्वतंत्रता सेनानी’ होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं! भगत सिंह के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती शायद सिर्फ भारत में ही संभव थी।
हालांकि, बाद में जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को इस बात का पता चला, तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर दत्त से माफ़ी मांगी। 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य भी बनाया गया, पर इसके बाद वे राजनीति की चकाचौंध से दूर गुमनामी में जीवन बिताते रहे। सरकार ने इनकी कोई सुध नहीं ली।
1964 में, जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दत्त दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे। उस वक़्त उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी, “कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था, उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।”
आज हमें इस महान क्रांतिकारी को याद करने की ज़रूरत है – एक ऐसे क्रांतिकारी को, जो फाँसी से बाल-बाल बच गया, जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा, वह आज अपने अंतिम समय में नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियाँ रगड़ रहा था और उसे कोई पूछने वाला नहीं था।
जब भगत सिंह की माँ अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँचीं, तो बटुकेश्वर दत्त ने उनसे सिर्फ एक बात कही – “मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए।” उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई। 17 जुलाई को वे कोमा में चले गए और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया।
भारत-पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ, यह गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है। ऐसा लगता है, जैसे भगत सिंह ने उनसे पूछा होगा – “दोस्त, मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में साँस न ले सका, तू बता आज़ादी के बाद हम क्रांतिकारियों की क्या शान है भारत में?”
बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए, उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास ही किया गया। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि कैसे हम अपने असली नायकों को अक्सर भुला देते हैं।




